पचास
साल की उम्र में जब दिल्ली के एक फिजिसियन ने मुझमे पर्किंसन के लक्षण देखे
और मुझे बताया तो सुन कर मै सन्न रह गयी
मन में सबसे पहले यही सवाल आया की ये अंग्रेजों वाली बीमारी मुझे क्यों हो गयी ? आम
धारणा है की चूँकि विदेशी अपने खाने में हल्दी का प्रयोग नहीं करते इसलिए उनको इस
बीमारी का खतरा ज्यादा होता है.इसी तरह ढेरों गलत फहमियां इस बीमारी के साथ जुडी
हुई हैं .जबकि सच्चाई यह है की लाख प्रयासों के बावजूद ,अभी तक इस पर शोध करने
वाले अँधेरे में तीर मार रहे है.यह क्यों होती है ?ये क्यों होती है भले अनिश्चित
है लेकिन यह जरूर निश्चित है की एक बार जब इस से सम्बंधित नसें अपना काम करना बंद
कर देती हैं जिससे आपका क्रिया- कलाप प्रभावित हो जाता है फिर जो भी लक्षण उभर कर
आते हैं उसे पूर्ण रूप से सामान्य बनाना संभव नहीं होता .यह एक कटु सत्य है .हाँ
नियमित व्यायाम पोस्टिक भोजन एवम तनावमुक्त जीवन शैली से इसे काफी हद तक रोका जरूर
जा सकता है .एलोपैथी चिकित्सा पद्धति इसे पूर्ण रूप से खत्म करने का दावा नही करती और इसे बढने से रोकने वाली दवाओं के
प्रयोग से आपके शरीर पर जो दुष्प्रभाव होगा उसे भी स्वीकार करके चलना होगा .होमियोपैथी
भी इसे जड़ से खतम नहीं करती दवाएं खाते रहिये बीमारी बढने की रफ्तार कम हो जाती
है.
चीनी चिकित्सा पद्धति
एक्युप्रेसर काफी हद तक इसके इलाज में कारगर साबित हुआ है.लकिन पूर्ण रूप से इसे
निर्मूल नहीं करता.वैसे बिना कोई दवाई खाए अगर यह असर करता है तो यह सभी चिकित्सा
से सर्वोत्तम माना जाएगा .
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